आदिवासी झारखंड में लोग अपने वन अधिकारों का दावा करने के लिए एक दूसरा रास्ता अपना रहे हैं

मो. असगर खान।

राज्य में वन अधिकार एक संवेदनशील विषय है. साइनबोर्ड अब आदिवासी समुदायों के लिए अपने बकायों का दावा करने का एक नया तरीका बनते जा रहे हैं।

रांची: सामाजिक कार्यकर्ता सुनील मिंज ने बताया, “तीन गांवों में लगे साइनबोर्ड बताते है कि गांव वालों के पास वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत 1,100 एकड़ भूमि के सामुदायिक अधिकार हैं. अब गढ़वा जिले के अन्य गांवों में भी साइनबोर्ड लगाने की योजना है. इन साइनबोर्ड के साथ ग्राम सभा उस वनभूमि के प्रबंधन, संरक्षण और सुरक्षा को सुनिश्चित करेगी।”

अपने बयान में मिंज ने खुलासा किया कि झारखंड के गढ़वा जिले के आदिवासी समुदाय जो अभी तक वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत अपना बकाया नहीं पा सके हैं, अब वे वन भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने के लिए साइनेज यानी चेतावनी संकेतक लगा रहे हैं।

पहला बोर्ड फरवरी में बरगद ब्लॉक के तीन गांवों- बादीखाजुरी, कालाखजुरी और गोथानी- में लगाया गया था. इस मामले पर विस्तार से चर्चा कर चुके ग्रामीणों का कहना है कि उनका ये अभियान संवैधानिक है. उनके पास एफआरए के तहत कानूनी अधिकार हैं और इसी के चलते वे साइनबोर्ड लगा रहे हैं।

101 रिपोर्टर्स से बात करते हुए गोथानी गांव के सरपंच अमोस मिंज याद करते हुए बताते हैं, “15 दिसंबर, 2018 को हमने 117 एकड़ वनभूमि के सामुदायिक अधिकारों के लिए दावा पेश किया था. लेकिन हमें आज तक भूमि अधिकार प्रमाण पत्र नहीं मिला है. बस यही वजह रही कि एफआरए के अंतर्गत ग्राम सभाओं को दिए गए अधिकार का इस्तेमाल करते हुए, हमने गोथानी में इन साइनबोर्ड्स को लगाया है।”

अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के केंद्रीय अध्यक्ष जय प्रकाश मिंज, अमोस का समर्थन करते हैं.

मिंज ने बताया, “हमारे गांव के लोग पिछले 25 सालों से वन अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. सामुदायिक अधिकारों के दावे सालों पहले किए गए थे, लेकिन प्रशासन की लापरवाही ने प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ने दिया. मजबूरन, वन भूमि पर अपने अधिकारों का दावा करने के लिए ग्राम सभा को साइनेज लगाने पड़ रहे हैं. बोर्ड सिर्फ उन्हीं जमीनों पर लगाए गए हैं, जिनके लिए हमने पहले दावा किया था.” मिंज का संगठन साल 2017 से एफआरए से संबंधित मुद्दों को सुलझाने के लिए आम निवासियों के साथ काम कर रहा है।

क्या कहते हैं साइन बोर्ड
साइनबोर्ड बताते है कि उल्लिखित पंचायत एफआरए के अंतर्गत आती है और यहांं रहने वाले पारंपरिक निवासियों के पास क्षेत्र के सामुदायिक अधिकार हैं. वो दावे के साथ यह भी कहते हैं कि संबंधित ग्राम सभा की अनुमति के बिना वनों की कटाई, वन संसाधनों की तस्करी या स्थानीय जैव विविधता के नुकसान से कानूनी रूप से निपटा जाएगा।

गांव वालों के मुताबिक, प्रशासन ने दो महीने के भीतर भूमि अधिकार प्रमाण पत्र बांटने का आश्वासन देते हुए अभियान को रोकने के लिए कहा था. यह आश्वासन फरवरी में दिया गया था. पांच महीने बीत गए है, लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति होती नहीं दिख रही है।

हालांकि अधिकारियों ने ग्रामीणों के इन दावों का खंडन किया है. गढ़वा जिले के रंका के उप-मंडल अधिकारी (एसडीओ) रामनारायण सिंह ने बताया कि उन्होंने ऐसा वादा कभी नहीं किया था कि वे दो महीने में भूमि अधिकार प्रमाण पत्र सौंप देंगे।

वह आगे कहते हैं, “हां, मैंने इस मसले पर चर्चा की गारंटी दी थी, लेकिन यहां होने वाले पंचायत चुनावों के चलते ऐसा नहीं हो सका” उन्होंने बताया, “डिप्टी कमिश्नर इस मुद्दे पर काम करेंगे और जल्द ही भूमि अधिकार प्रमाण पत्र पर निर्णय ले लिया जाएगा।”

भूमि अधिकार प्रमाण पत्र क्यों मायने रखता है
वनभूमि अधिकारों के महत्व को समझने के लिए कुछ प्रमुख संख्याओं पर गौर करना जरूरी हो जाता है. झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस द्वारा किए गए 2019 के सर्वे के मुताबिक, झारखंड के 32,112 गांवों में से 14,850 गांव वन क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं. लगभग 2.5 करोड़ की इनकी आबादी है और ये वन गांव 73.9 लाख हेक्टेयर में फैले हुए हैं. इसमें से 18.82 लाख हेक्टेयर पर सामुदायिक और व्यक्तिगत अधिकारों के लिए एफआरए के तहत दावा किया जा सकता है।

वन अधिकार अधिनियम (2006) के तहत भूमि के अधिकार का दावा करते हुए गढ़वाल जिले, झारखंड के वनवासी
पलामू संभाग के तीनगढ़वा, पलामू और लातेहार जिलों में 3,492 गांव हैं, जिनमें से 2,009 वन क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं. एफआरए के अंतर्गत इस इलाके की करीब 4.6 लाख हेक्टेयर जमीन पर दावा किया जा सकता है।

झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन जैसे संगठनों का कहना है कि राज्य में कम से कम 75 लाख लोग वनों पर निर्भर हैं. इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि उन्हें भूमि अधिकार प्रमाण पत्र सौंपे जाएं।

अधिकारियों की मनमानी
झारखंड में वन भूमि अधिकारों के लिए योग्य प्राप्तकर्ताओं की आधिकारिक संख्या को देखते हुए, इस मुद्दे पर प्रशासन के सुस्त रवैये का अंदाजा लगाया जा सकता है।

जनजातीय मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध एक रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड सरकार ने 31 मार्च, 2022 तक सिर्फ 2.5 लाख एकड़ वन भूमि के लिए भूमि अधिकार प्रमाण पत्र वितरित किए. जबकि उन्हें 1.1 लाख से ज्यादा क्लेम फार्म प्राप्त हुए थे. इनमें से प्रमाण पत्र के लिए किए गए दावों की संख्या 61,970 थी।

राज्य में वन अधिकारों का मुद्दा एक ऐसा मसला रहा है जिसे कोई भी राजनीतिक पार्टी उठाना नहीं चाहती है. दिलचस्प बात यह है कि राज्य में मौजूदा समय में सत्ता पर विराजमान पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) जब राज्य विधानसभा में विपक्ष में थी तो इस विषय पर काफी मुखर रही थी. 2019 के चुनावों से पहले झामुमो ने आदिवासी और अन्य वन-निवास समुदायों को भूमि अधिकार प्रमाण पत्र को लेकर आश्वासन दिया था. तत्कालीन विपक्ष ने दावों को दाखिल करने और इन प्रमाणपत्रों को प्राप्त करने को और अधिक सुविधाजनक बनाने का भी वादा किया था।

‘कितने लोगों को भूमि अधिकार प्राप्त हुए हैं?’
पलामू ब्लॉक में झारखंड वन अधिकार मंच के लिए काम करने वाले मिथिलेश कुमार ने 101 रिपोर्टर्स को बताया, “सामुदायिक भूमि अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं और न ही सरकार ऐसा करने के लिए कोई इच्छाशक्ति दिखा रही है। एफआरए के कार्यान्वयन में भी कमी है. अगर सब कुछ सही ढंग से चल रहा होता तो ग्रामीणों को आप ये साइनबोर्ड लगाते हुए नहीं देखते।”

“एफआरए 2008 में झारखंड में लागू किया गया था. लेकिन अब 2022 चल रहा हैं. अब तक कितने लोगों को उनके भूमि अधिकार प्रमाण पत्र प्राप्त हुए हैं? ”

आदिकाल से वनों में आदिवासी समुदायों का हिस्सा रहा है, लेकिन सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने से हिचकिचाती रही है.
कुमार कहते हैं, ”वे कॉरपोरेट्स को जमीन देना चाहते हैं और ऐसा कर भी रहे हैं।” झारखंड वन अधिकार मंच के कई स्वयंसेवकों ने बताया कि प्रशासन साइनबोर्ड अभियान को पत्थलगड़ी आंदोलन के साथ जोड़ रहा है, जो झारखंड के खूंटी जिले में आदिवासी समुदायों का एक विरोध अभियान रहा है. उनके अनुसार, यह अभियान को दबाने का एक प्रयास है।

संगठन से जुड़े मिथिलेश कुमार जोर देते हुए कहते हैं, “जंगलों में साइनबोर्ड लगाना अवैध नहीं है. यह वास्तव में एफआरए की धारा 3 और 5 के तहत जायज है।”

जब 101रिपोर्टर्स ने इन दावों को लेकर जानकारी लेनी चाही तो रंका एसडीओ रामनारायण सिंह ने जवाब दिया, “हमें अभी तक अभियान में कुछ भी असंवैधानिक नहीं दिखा है. हालांकि, मैं अभी इसे लेकर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता कि भविष्य में इन्हें रोकने की कोशिश की जाएगी या नहीं। उधर कुमार ने आरोप लगाते हुए कहा कि वन विभाग जमीन के अधिकारों को लेकर गांव वालों को परेशान कर रहा है। उन्होंने बताया, “वन विभाग सामुदायिक वन भूमि पर खाई खोदकर उनमें पेड़ लगा रहा हैं. दरअसल, ऐसा कर वह एक तरह से उस वनभूमि की सीमा को चिह्नित कर रहे हैं, जिस पर ग्रामीण अपना दावा कर सकते हैं. जबकि इस जमीन पर गांव वालों को कानूनी अधिकार हैं.” वह आगे कहते हैं, “अगर गांव वाले इन सीमाओं को पार कर, उस तरफ से जलाऊ लकड़ी या बीड़ी के पत्ते ले आते हैं, तो वन विभाग उनके खिलाफ मामला दर्ज कर देता है।”

भारत में जमीन को लेकर हुए संघर्षों पर डेटाबेस रखने वाला एक संगठन लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच के अनुसार, जून के बाद से इस तरह के संघर्षों की संख्या बढ़ी है. उनका डेटाबेस मौजूदा समय में चल रहे 621 विवादों पर नज़र रखे हुए है।

संयोग से 28 जून को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वन संरक्षण अधिनियम के तहत वन संरक्षण नियम, 2022 को अधिसूचित किया था. इसने 2003 में अधिसूचित पहले के नियमों को बदल दिया था।

नए नियमों के अनुसार, अधिनियम की धारा 2 के तहत केंद्र सरकार से ‘अंतिम’ अनुमोदन प्राप्त करने के बाद कोई भी “डायवर्सन, पट्टे या डी-रिजर्वेशन का असाइनमेंट” (गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का इस्तेमाल), राज्य या केंद्र शासित प्रदेश द्वारा निम्नलिखित आदेश जारी करने के बाद कर सकता है, कि “इसके तहत बनाए गए अन्य सभी अधिनियमों और नियमों के प्रावधानों की पूर्ति और पालन” किया गया है. इनमें एफआरए, 2006 के तहत अधिकारों का समझौता शामिल है।

आवास अधिकार और सामुदायिक वन अधिकारों पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा गठित समिति के सदस्य सत्यम श्रीवास्तव के मुताबिक, संशोधित नियम वरदान से ज्यादा अभिशाप साबित हो सकते हैं।

उन्होंने बताया, “एफआरए 2006, यह सुनिश्चित करने के लिए तैयार किया गया था कि वन-आवास समुदाय सरकार और वनभूमि के बीच एक इंटरफेस के रूप में कार्य करें। उनके निर्णय लेने के अधिकार और गैर-वन भूमि में परिवर्तन की सहमति को वन संरक्षण और शासन के लिए महत्वपूर्ण माना गया था।”

वह कहते हैं, “वनभूमि में डायवर्जन की औपनिवेशिक विरासत उस समुदायों के कथन या राय को मान्यता नहीं देती थी जो पीढ़ियों से वनों में रह रहे थे और उनका संरक्षण करते थे. फिर इस प्रक्रिया का लोकतंत्रीकरण करने के लिए 2006 में एफआरए आया. इसने ग्राम सभाओं को वनों के प्रबंधन और संरक्षण के लिए वैधानिक प्राधिकरण के रूप में अधिकार दिया. अधिनियम कानून द्वारा सामुदायिक अधिकारों की मान्यता और वन क्षेत्र के किसी भी गैर-वन डायवर्जन के उपक्रम से पहले उनकी सहमति को अनिवार्य करता है।”

श्रीवास्तव जुलाई 2009 के वन मंत्रालय के सर्कुलर का हवाला देते हुए कहते हैं, कि गैर-वन उद्देश्यों के लिए भूमि का डायवर्जन सिर्फ ग्राम सभा के एक प्रस्ताव के बाद ही किया जा सकता है. प्राप्ति सूचना देनी होगी कि सैद्धांतिक मंजूरी देने से पहले समुदाय को अधिकार देते हुए क्षेत्र में एफआरए लागू किया गया है।

वह चेतावनी देते हुए कहते हैं, ” अगर प्राथमिक स्तर पर ग्राम सभाओं से सहमति नहीं मांगी गई तो जमीन को लेकर संघर्ष और बढ़ जाएगा।

यह लेख 101रिपोर्टस की सीरीज द प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स का एक हिस्सा है. इस श्रृंखला में, हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि कैसे साझा सार्वजनिक संसाधनों का सही प्रबंधन, इको सिस्टम के साथ-साथ यहां रहने वाले समुदायों की मदद कर सकता है।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters के सदस्य हैं, जो ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों का सर्वत्र भारत में फैला नेटवर्क है।)

संपादन -शरद अकवूर

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