भारतीय काले हिरण से दोस्ती करने के लिए गांव वालों को क्या करना पड़ा?

ज्यादातर लोग जानते हैं कि वन्यजीव संरक्षण में काले हिरण की कितनी अहमियत है. इस लुप्तप्राय जानवर को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर भी काफी प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन इन प्रयासों के इतर गंजम जिले के गांव भारतीय मृग के संरक्षण की कहानी में बदलाव की एक नई शुरुआत लेकर आए हैं, जिसके साथ वो अपने जीवन को भी बदलना चाहते हैं..

प्रतिभा घोष

गंजम, ओडिशा : “हमने एक ऐसे समय के बारे में भी सुना है, जब गांव तीन साल तक सूखे की चपेट में रहा. लोगों के पास शायद ही कुछ खाने के लिए था. उन्हीं की तरह जंगली जानवर भी भूखे थे. वे जंगल से गांव की ओर पलायन कर गए। उनमें से एक काला हिरण भी था, जो पहली बार भेटनाई आया था.” गांव के एक बुजुर्ग निवासी सुरेश महाराणा बड़ी दिलचस्पी के साथ अपनी इस कहानी को सुना रहे थे।

महाराणा कहते हैं, अगले ही साल भेटनाई में बारिश हुई और सब कुछ सामान्य हो गया। अपने पूर्वजों के काले हिरणों के साथ घनिष्ठ संबंध का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया, “तब से लोग मानने लगे कि ये जानवर गांव के लिए भाग्यशाली हैं. इसलिए हम कभी भी काले हिरण को अपनी फसल खाने से नहीं रोकते।”

इसके बाद महाराणा एक और लोककथा साझा करने लगे, “चूंकि भगवान राम ने एक हिरण का पीछा किया और सीता को खो दिया। इसलिए ऐसा माना जाता है कि काले हिरण को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति का बुरा समय आ सकता है।”

अब ये तो पता नहीं कि इन लोक कथाओं में कितनी सच्चाई है, लेकिन लुप्तप्राय जानवर के साथ उनके मीठे संबंधों और विश्वास व परंपरा में डूबे ग्रामीणों ने ओडिशा की इस जगह को लोगों के बीच खासा लोकप्रिय बना दिया है..

भारतीय काले हिरण से दोस्ती करने के लिए गांव वालों को क्या करना पड़ा?
गंजम में रहने वाले कैलाश चंद्र महाराणा तमाम मुश्किलों के बावजूद काले हिरणों को बचाते हैं और उनका पालन-पोषण करते हैं

बेरहामपुर से लगभग 50 किमी दूर भटनाई में काले हिरण को गांव के खेतों में घूमने से कोई नहीं रोकता, मानो उन्हें खेतों में बेरोक-टोक घूमने का पास मिला हुआ है. इसकी वजह बताते हुए गांव वाले कहते हैं कि भारतीय मृग उनकी समृद्धि और खुशी का कारण हैं. इसलिए फसल के नुकसान के बावजूद वे उनके लिए कभी परेशानी का सबब नहीं बनते हैं. ये हिरण शाकाहारी हैं और इन्हें अपने खाने के लिए बड़ी चराई वाली जमीन की जरूरत होती है।

पिछले एक दशक से गंजम के स्थानीय लोग काले हिरणों के संरक्षण में शामिल हैं. उनके इस काम ने बहुत से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. जिले में उनके इन प्रयासों से न सिर्फ काले हिरण की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, बल्कि पर्यटकों ने भी इस क्षेत्र में जानवर की एक झलक पाने के लिए आना शुरू कर दिया है. उन्होंने इस क्षेत्र को एक खास पहचान दी है।

स्थानीय संरक्षण की कहानी

भेटनाई के लगभग 90 फीसदी निवासियों का मानना है कि काले हिरण के कारण उनकी फसल बर्बाद हो जाती है, लेकिन उन्हें इससे कोई शिकायत नहीं है. दरअसल हिरणों की वजह से रोजगार के नए अवसर भी उनके सामने आए हैं. ये कुछ ऐसा था जिसकी उन्हें सख्त जरूरत थी. क्योंकि कृषि को लंबे समय तक प्राथमिक आजीविका के साधन के तौर पर नहीं देखा जा सकता था. जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के एक वैज्ञानिक प्रत्यूष महापात्रा ने बताया, काले हिरण पर विभाग की 2010 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भेटनाई में लगभग 25 प्रतिशत खेत बंजर पड़े हैं।

गांव वालों ने वन्यजीव संरक्षण में सार्वजनिक भागीदारी के लिए एक मिसाल कायम की है, जिसमें हर ग्रामीण एक अभिभावक के रूप में काम करता है. इन सामुदायिक प्रयासों के कारण ही भटनाई कृषि क्षेत्र से आगे बढ़ रहा है और पर्यटन को एक भरोसेमंद वैकल्पिक आजीविका के रूप में देख रहा है. ऐसे ही एक ‘संरक्षक’ हैं 52 साल के कैलाश चंद्र महाराणा. उन्होंने कहा कि ग्रामीण तमाम मुसीबतों के बावजूद काले हिरण को बचाने और पालने में अपना काफी समय व्यतीत करते हैं।

भारतीय काले हिरण से दोस्ती करने के लिए गांव वालों को क्या करना पड़ा?
वन विभाग ने काले हिरणों को चरने के लिए घास के मैदानों तैयार किए हैं. इसका नतीजा ये हुआ कि किसानों की फसल का नुकसान भी अब कम होने लगा है.

इसके अलावा विभिन्न महिला नेतृत्व वाले स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के सदस्य और भेटनाई में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भी इस काम में हाथ बटां रहे हैं. संयोग से एसएचजी से जुड़ी महिलाएं हीं ब्लैकबक पर डेटा इकट्ठा करती हैं. उनकी गतिविधियां, बदलते खाने की आदतें आदि पर रिपोर्ट तैयार करती हैं. ओडिशा सरकार के वन विभाग की मदद से प्रजातियों की रक्षा के लिए एक वन सुरक्षा समिति भी बनाई गई है।

साधी नयापल्ली गांव की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उषा रानी कहती हैं कि गंजम में काले हिरण के संरक्षण में उनके केंद्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

उन्होंने बताया, “हमारे गांव में लगभग सात स्वयं सहायता समूहों ने काले हिरण के संरक्षण के लिए खुद को समर्पित किया हुआ है.”
पिछले 20 सालों से संरक्षण के काम में लगीं बिष्णु मांझी का कहना है कि एसएचजी की महिलाएं ब्लैकबक्स पर जन जागरूकता बढ़ाने के लिए पर्चे बांट रही हैं. इसके अलावा वे इनकी पेंटिंग से सरकारी स्कूलों की दीवारों को सजाती हैं ताकि बच्चों में इन्हें लेकर जागरूकता पैदा हो।

घुमसुरा डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर दिलीप कुमार राउत ने कहा, “पश्चिमी राजस्थान के बिश्नोई और सौराष्ट्र के वाला राजपूतों की तरह गंजम के लोग भी उत्साहपूर्वक इस जानवर की रक्षा कर रहे हैं. जब पूरा समुदाय उनकी सुरक्षा के लिए काम करता है, तो ऐसी पहल खुद ब खुद आगे बढ़ती रहती हैं, उन्हें किसी बड़ी सरकारी भागीदारी की जरूरत नहीं होती है।”

वन विभाग के प्रयास

भारत में काला हिरण वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 के तहत संरक्षित है. यह अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की लाल सूची में भी शामिल है. भारत में इनकी संख्या 1990 के दशक में काफी कम हो गई थी. उसके बाद इस दुर्लभ प्रजाति के संरक्षण के लिए प्रयास किए गए. सार्वजनिक भागीदारी के कारण प्रयासों ने गति पकड़ी और उनकी संख्या अब फिर से बढ़ने लगी है।

ओडिशा के गंजम में काले हिरण की आबादी के भोजन के लिए अधिकारी 20 एकड़ फसल के खेतों को साल में चार बार काटते हैं। दरअसल ओडिशा ऐसे सामुदायिक प्रयासों का प्रमुख उदाहरण है, जिनकी वजह से जानवरों की प्रजातियों को बचाने के लिए किए जा रहे प्रयास नई उंचाईयों को छू रहे हैं. राज्य के वन विभाग द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, काले हिरण की आबादी 2011 में 1,533 से बढ़कर 2018 में 2,809 और 2021 में 6,875 तक पहुंच गई।

भेटनाई निवासी अमूल्य उपाध्याय ने बताया कि 1990 में एक काला हिरण संरक्षण समिति की स्थापना भी की गई थी. बाद में ग्रामीणों की मदद से एक जिला स्तरीय समिति का गठन किया गया. यह समिति प्रजातियों की रक्षा के लिए ढाल की तरह खड़ी रहती है।

काले हिरणों की संख्या बढ़ने से फसल को नुकसान पहुंचा है. लेकिन ग्रामीण अभी भी इस बात पर डटे हैं कि किसी भी तरह से काले हिरण का नुकसान नहीं होना चाहिए. उनकी इस दृढ़ इच्छाशक्ति को देखते हुए स्थानीय वन विभाग ने जानवरों की रक्षा करने और फसल के नुकसान को सीमित करने में मदद करने के लिए इस ओर कदम बढ़ाया।

सबसे पहले विभाग ने झुंडों की आवाजाही पर नज़र रखी। इसके बाद उन्होंने ग्रामीणों से पट्टे पर भूमि का अधिग्रहण किया और उनके लिए खास फसल भूमि तैयार की. यहां अब हरा चना, बंगाल चना और रागी जैसी दालें उगाई जाती हैं. घास के नए मैदान तैयार किए गए. इससे काले हिरण को चरने के लिए पर्याप्त जगह उपलब्ध कराने में मदद मिली और फसल का नुकसान भी कम हो गया। अपनी फसल के नुकसान के बावजूद गांव वाले उन्हें खेत में घूमने से कभी नहीं रोकते।

भारतीय काले हिरण से दोस्ती करने के लिए गांव वालों को क्या करना पड़ा?
भेटनाई में घूमते काले हिरण. ये शाकाहारी हैं और इन्हें बड़ी चराई वाली भूमि की जरूरत होती है.

इसके अलावा अधिकारियों ने 20 एकड़ फसल के खेतों को तैयार किया, जिसे काले हिरण को खिलाने के लिए साल में चार बार काटा जाता है. यहां जानवरों के लिए तालाब, गेम टैंक और साल्ट लिक जैसे 20 जल निकाय भी बनाए गए हैं।

सड़क हादसों और आवारा कुत्तों का शिकार बने काले हिरणों के इलाज के लिए भी वन विभाग ने व्यवस्था की हुई है. इन सबके अलावा विभाग जनभागीदारी के जरिए प्रजातियों की रक्षा और संरक्षण के लिए सभी प्रकार की आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान कर रहा है. क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है।

पर्यटन गतिविधियों का बढ़ना

हो सकता है फसल के नुकसान ने भेटनाई की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया हो, लेकिन गांव वालों को इससे आय का एक बड़ा जरिया भी मिला है. हर साल दिसंबर और जनवरी में हजारों की संख्या में पर्यटक काले हिरण को देखने के लिए गंजम गांव आते हैं. गंजम पर्यटन अधिकारी रतिकांत महापात्र के अनुसार, जानवरों को देखने के लिए सालाना लगभग 20,000 पर्यटक जिले में आ रहे हैं. महामारी के दौरान भी ये सिलसिला नहीं रुका था. कई विशेषज्ञ, फोटोग्राफर और प्रकृति प्रेमी भेटनाई आते रहे।

भारतीय काले हिरण से दोस्ती करने के लिए गांव वालों को क्या करना पड़ा?
विशेषज्ञ, फोटोग्राफर और प्रकृति प्रेमी लुप्तप्राय प्रजातियों को देखने के लिए ओडिशा के गनजम जिले में भेटनाई आते हैं.

पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए कई शानदार कदम उठाए गए हैं. वन (वन्यजीव) के प्रधान मुख्य संरक्षक शशि पॉल ने बताया कि स्थानीय वन विभाग ने एक चार मंजिला वॉच टावर का निर्माण किया है जहां से लोग ब्लैकबक देख सकते हैं और उनके व्यवहार की निगरानी कर सकते हैं।

पर्यटकों की आमद ने क्षेत्र के युवाओं को रोजगार के अवसरों में भी मदद की है.

राज्य के पर्यटन विभाग ने युवाओं को गाइड के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए गंजम जिले के गोपालपुर में टाटा स्टील फाउंडेशन के साथ मिलकर काम किया है. फाउंडेशन का उद्देश्य इन युवाओं के लिए एक स्थायी आजीविका सुरक्षित करना है।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters के सदस्य हैं, जो ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों का सर्वत्र भारत में फैला नेटवर्क है।)

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